अज़ीज़ आज़ाद
सूर्य प्रकाशन मंदिर
बीकानेर
पृ: 84
अज़ीज़ आज़ाद की ये ग़ज़ल इत्तेफ़ाक़न हाथ लगी। इंटरनेट पर मुफ्त पुस्तकें ढूंढने में कई ऐसे नाम मिले जो मैंने पहले कभी नहीं सुने थे। इसका एक बड़ा कारण है मेरी किताबों की दुनिया से दूरी। कभी सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए किताबों या लेखकों के नाम मुझसे याद नहीं हुए। कई ऐसी पुस्तकें हैं जिनकी कहानियाँ मुझे याद हैं,पर लेखकों के नाम याद नहीं। यह एक बड़ी कमी है मुझमें। पर पुस्तकें मुझे एक दूसरी दुनिया में ले जाती हैं, जहाँ इस दुनिया के लोगों का नाम याद रखना, न रखना एक बराबर। कविताओं और ग़ज़लों से मैं आमूमन दूर रहती हुँ। कवितायें समझने के लिए स्पष्ट शब्दों से दूर जाना पड़ता है। जो मुझे अपनी काबिलियत के परे लगता है। फिर भी आज़ाद की ये ग़ज़ल हाथ लगी तो पढ़ने से रोक नहीं पायी। फिर हिंदी की किताब को किंडल पे पढ़ने का प्रयास भी करना था। प्रयास सफल रहा। अब और किताबें पढ़ने का सिलसिला चलेगा।
आज़ाद की ग़ज़ल को मैं पूरा समझ पायी, ऐसा कहना तो गलत होगा। पर पढ़ने में मज़ा आया। बीच बीच में कई बार लगा की ये पंक्तियाँ तो कहीं और भी पढ़ी हैं। या इसमें तुकबंदी करने की ज़बरदस्त कोशिश दिखती है। पर कुछ ऐसे भी पन्ने थे जिन्हें दो – तीन बार पढ़ा। ग़ज़ल में बदलती दुनिया, बदलते रिश्ते, और बदलते हम ख़ुद, सब का ज़िक्र है। हालांकि ग़ज़ल चालीस – पचास बरस पुरानी तो होगी, पर आज के समय के भी कई मुद्दों से जुड़ती है। और अस्तित्ववाद कब बेमानी हुआ है… ज़िन्दगी में निरर्थकता का आभास कभी न कभी तो सभी महसूस करेंगे। और कुछ, इसी में अपनी ज़िन्दगी गुज़ार देंगे। बरहाल, इस किताब की दो पंक्तियाँ जो अच्छी लगीं, यहाँ साझा कर रही हुँ:
“उम्र बस नींद सी पलकों में दबी जाती है
ज़िन्दगी रात सी आँखों में कटी जाती है “
“भीड़ में अनजान बच्चे की तरह
मुद्दतों से गुमशुदा है ज़िन्दगी “
(किताब फ़िलहाल इंटरनेट पर मुफ्त मिल रही है। पढ़ लें जल्दी जल्दी। )